
आजकल की इस भागदौड़ भरी ज़िन्दगी में एक बात जो हर क्षेत्र में देखने को मिलती है वह है 'स्पर्धा' | 'स्पर्धा' का अर्थ है प्रतियोगिता या होड़ |अब आप सोच रहे होंगे कि आखिर ये स्पर्धा होती क्यों है ? है ना ! तो आइए विस्तार में समझते हैं | एक बालक जन्म से ही स्पर्धा की इस अंधी दौड़ में शामिल हो जाता है या कर दिया जाता है | "मेरा बच्चा शर्मा जी के बच्चे से ज़्यादा जल्दी बोलना सीख गया , मेरे बच्चे को सारी कविताएँ याद हो गई हैं, मेरे बच्चे को ज़्यादा अच्छे ग्रेड मिले , बोर्ड परीक्षा में मेरे बच्चे ने शर्मा जी के बेटे को पीछे छोड़ दिया ......| " ये छोटी- छोटी तुलनात्मक बातें ही आगे चलकर उस बच्चे को इस स्पर्धा की दौड़ का महारथी बना देता है और यदि दुर्भाग्य से वह इस दौड़ में किसी से पीछे रह जाए तो वो दुःख पहले विषाद और फिर मानसिक तनाव में परिवर्तित होकर उसके बौद्धिक तथा भावनात्मक विकास में बाधक बनता है |ऐसा नहीं कि स्पर्धा सर्वथा घातक ही होती है | यह हम पर निर्भर करता है कि हम उसे किस रूप में लेते हैं | एक अभिभावक होने के नाते हमारी नैतिक ज़िम्मेदारी है कि हम अपने बच्चों को स्वस्थ स्पर्धा सिखाएँ और उनमें हार -जीत दोनों को सहर्ष स्वीकार करने की भावना को विकसित करें | यदि हम अपना यह दायित्व भली-भांति पूरा कर पाए तो यही स्पर्धा सकारात्मक रूप धारण कर लेती है और बच्चे के सर्वांगीण विकास में सहायक सिद्ध होती है | इसीलिए तो भाषायी शिक्षा में नैतिक मूल्यों को बहुत अधिक महत्त्व दिया जाता है | भाषा सीखते-सीखते बच्चा स्वतः ही समझ, सहयोग , सहायता , समर्थन , सत्कार , सहानुभूति, समानुभूति जैसे ना जाने कितने सद्गुण सीखते जाता है और भविष्य में एक ज़िम्मेदार नागरिक बनता है |